Tuesday, 2 September 2014

हाइकु कार्यशाला चित्र-1

दिये गये चित्र को देखकर हाइकु लिखने के लिए कार्यशाला का आयोजन किया गया। यह कार्यशाला 22 जून 2014 से 05 जुलाई 2014 तक चली। कार्यशाला में चार चित्र दिये गये था जिन पर हाइकुकारों ने हाइकु लिखकर हाइकु समूह पर पोस्ट किये। कार्यशाला में लिखे गए हाइकु अलग अलग चित्रों के अनुसार यहाँ प्रकाशित किये जा रहे हैं।




हाइकु कार्यशाला - चित्र-1


यदि जल है 
मानिए ना मानिए 
तो ही कल है 

-मुकेश शर्मा 
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दयालु लाडो 
गैर प्यास बुझाती 
दानी महान 

-सविता मिश्रा
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प्यास बुझाती 
उदारमना नदी
पूछे न जाति

-सुनीता अग्रवाल
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आप हैं प्यासे
दिख रहे विकल
पीजिए जल

-सन्तोष कुमार सिंह
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मिला संस्कार 
जगाया सेवा-भाव 
नेक ईमान

-दिनेश पाण्डेय
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जगाती आस 
अतीत की नदी में 
नन्ही आस्था

-योगेन्द्र वर्मा
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पीढ़ा हरते 
दिखते हैं संस्कार 
प्यास बुझाते 

-अलका गुप्ता
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बुझती प्यास
बुजुर्गों की ये आस
बच्चे हों पास 

-ज्योतिर्मयी पन्त
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खाती खिलाती 
बड़ी मिठियास से 
बेटी हमारी

-मनोहर अभय
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स्कूली बिटिया
प्यासों को पानी देती
धर्म जानती

-शिवजी श्रीवास्तव
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नेह दर्शन 
जीवन का स्पंदन 
पा रही दुआ

-विभा श्रीवास्तव
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क्यों रहो प्यासे 
जब साथ आपके 
नव उन्मेष 

-रामनिवास बांयला
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बिटिया रानी 
है संस्कारों में पली 
दिल की भली

-राजीव गोयल
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झरता स्नेह 
तृप्त धरा आकाश 
मोहिनी माया

-मीनाक्षी धनवंतरि
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मेरी है आशा 
जल सब को मिले 
रहे न प्यासा 

-ओमप्रकाश क्षत्रिय
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पहला पाठ
जिंदगी ने सिखाया 
दीनों की सेवा 

-महेंद्र वर्मा "धीर"
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बिटिया मन
उतार रही ऋण
मानवता का 

-शिव मूर्ति तिवारी
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बालक मन
बुझा गैरों की प्यास
हुआ प्रसन्न 

-गुंजन गर्ग अग्रवाल
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प्यारी बिटिया 
जल से तृप्त करे 
बृद्ध जनों को 

-आशा लता सक्सेना
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प्यासे को पानी 
पहला अधिकार 
माँ ने सिखाया 

-डॉ. प्रदीप शुक्ल
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नेह की प्यास 
अंजुरी में टपके 
भरे आँख में

-संध्या सिंह
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Friday, 6 June 2014

चित्र हाइकु कार्यशाला 27 मई 2014

फेसबुक हाइकु समूह पर यह चित्र देखकर हाइकु लिखने के लिए कहा गया।
चित्र देखकर हाइकु लिखने की एक परम्परा है, किसी चित्र देखकर अलग अलग तरह के भाव मन में उठते हैं, ये भाव व्यक्ति की अपनी मनोदशा को भी अभिव्यत करता है..... यह चित्र फेसबुक से ही लिया गया है, जिसने इस चित्र को अपने कैमरे से उतारा है उन  अनाम सज्जन का आभार कि उनका चित्र इतनी हाइकु कविताओं को जन्म दे गया...... बहुत कम समय में 17 हाइकु पोस्ट करके सदस्यों ने अपनी अपरिमित रचनात्मक ऊर्जा का परिचय दिया है ..... सभी को मैं हार्दिक वधाई देता हूँ।



सबसे पहले अश्विनी कुमार विष्णु ने अपना हाइकु पोस्ट किया। चित्र में धूप की परिकल्पना करते हुएरेल की पटरी पर धूप का दौड़ना और फैले हुये तम को दूर करने की अद्भुत कल्पना की है-

दौड़ रही है 
पटरी पर धूप
तम हरने

-अश्विनी कुमार विष्णु
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डा० अंजलि देवधर विश्वस्तर पर अंग्रेजी हाइकु की सुप्रसिद्ध हाइकुकार हैं, हाइकु समूह पर उनकी सहभागिता समूह के लिए बेहद सम्मान का विषय है। चित्र में जिस तरह का शांत वातावरण है वह एक दार्शनिक चिंतन की ओर भी प्रेरित करता है, उनका हाइकु जहाँ खत्म होता है वहीं से चिंतन की शुरुआत होने लगती है-

बुद्ध पूर्णिमा
कहाँ चला जा रहा (मैं)
ढूँढ़ता क्या हूँ

-डा० अंजलि देवधर
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गतिमयता ही सत्य है, चाहे वह रेल की पटरी हो या सूरज का निरंतर आना जाना, प्रकाश खत्री शायद यही कहना चाह रहे हैं-

पटरी चले 
रेल और सूरज
ज़िंदगी ज़िद्दी

-प्रकाश खत्री
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चन्द्रमा की चाँदनी मार्ग प्रशस्त करने का प्रतीक है तो रेल की पटरियाँ हमारे गंतव्य की परिचायक हैं जो हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सहायक है, ज्योतिर्मयी पन्त का हाइकु यही प्रेरणा दे रहा है-

प्रकाश पुञ्ज 
मिले सुगम मार्ग
निश्चित लक्ष्य 
.
-ज्योतिर्मयी पंत

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ध्यान चन्द के हाइकु में चन्द्रमा की किरणों का आँख मिचोली खेलना मानव जीवन में आने वाले दुख सुक की ओर संकेत करता है-

चंद्र किरण 
खेले आंख मिचोली 
चला जीवन

-ध्यान चन्द
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रेखा नायक रानो के हाइकु में साँझ ढलने के शाश्वत सत्य और जीवन यात्रा की निरंतरता की परिकल्पना की गई है, सकारात्मक सोच का यह हाइकु बहुत कुछ समाहित किये हुए है-

ढलती साँझ 
अनवरत यात्रा 
चलते जाना 

-रेखा नायक रानो 
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संजय सूद चित्र में जीवन की लम्बी राहों को पढ़ लेते हैं और निरंतर चलते रहने को ही जीवन का ध्येय मानते हैं-

लम्बी है राहे 
समय अनजाना 
चलता चल 

- संजय सूद
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यहाँ रास्ता सूना है, रात के समय है और चारो ओर नीरवता परन्तु कोई तो हमारा साथ दे रहा है और वह है चन्द्रमा की किरणें फिर भला राही को डर कैसा, निराशा में आशा की रोशनी देता हुआ गुंजन गर्ग अग्रवाल का यह हाइकु जीवन जीने की अतिरिक्त प्रेरणा दे रहा है-

सूनी डगर
चन्द्र किरण साथ
राही निडर

-गुंजन गर्ग अग्रवाल

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मीनाक्षी धनवंतरि रेल की पटरियों को पृथ्वी की माँग के रूप में देखती हैं, झिलमिलाती रोशनी आकाश में चाँदी जैसी छटा बिखेर रही हैं-

धरा की माँग
झिलमिलाता व्योम 
चाँदी बिखरी

-मीनाक्षी धनवंतरि
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रेल की पटरी हमारे लक्ष्य तक पहुँचने का माध्यम है, चन्द्रमा की चाँदनी के साथ प्रिय की नगरी तक पहुँचने की परिकल्पना इस हाइकु में आभा खरे ने की है-

रेल पटरी 
चाँद संग ले चली 
पी की नगरी 

-आभा खरे

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संध्या के घर में दिनकर का अतिथि बनकर रात भर रुकना एक अनोखी कल्पना है, अभिषेक जैन का यह हाइकु यही कहता है-

गुजारे रात
अतिथि दिनकर
संध्या के घर

-अभिषेक जैन
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मानव कहाँ से आता है और कहाँ को जाता है, कोई नहीं जानता... चित्र देखकर यती जी दार्शनिक की तरह चिंतन करने लगते हैं, उन्हें लग रहा है कि वे क्षितिज के पार कहीं चलते चले जा रहे हैं-

लग रहा है 
चला जा रहा हूँ मैं 
क्षितिज पार

-ओमप्रकाश यती
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अँधेरी पटरियों को सूर्य मानो रास्ता दिखा रहा है, डा० सरस्वती माथुर का यह हाइकु देखें-

रोशन रास्ता
पटरी को दिखाती
सूर्य की बत्ती 

-डॉ० सरस्वती माथुर

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विभा श्रीवास्तव पूर्ण अर्पण और कर्म संदेश इस चित्र में देख रही हैं-

पूर्ण अर्पण
पथ पाँव अथक
कर्म सन्देश

-विभा श्रीवास्तव
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लोक छूटने की कमी कहीं न कहीं उनके मन में खटकती रहती है जो लोक से जुड़े हुए हैं, सुनीतअ अग्रवाल चित्र में चाँद देखकर पुरानी स्मृतियों में पहुँच जाती हैं और खेतों के बीच चाँद छूटने की महानगरीय त्रासदी हाइकु में उभर कर आ जाती है-

गाँव जो छूटा
खेतों के बीच कहीं 
चाँद भी छूटा 

--सुनीता अग्रवाल (नेह)

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महेन्द्र वर्मा गुमसुम पटरियों के द्वारा चाँद को निहारने की कल्पना करते हैं-

छटा बिखरी 
गुमसुम पटरी 
चाँद निहारे

-महेंद्र वर्मा "धीर"
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अरुण सिंह रुहेला का हाइकु गज़ब की परिकल्पना करते हैं, उन्हें लगता है कि चाँद छोटा बच्चा है जो अपने पिता के साथ घूम रहा था, उसके पिता रेल में बैठकर चले गये.... वह बेचारा अकेला रह गया एकदम अनाथ

छूटी जो रेल
पिता का छूटा साथ
चाँद अनाथ

-अरुण सिंह रुहेला
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रामेश गौरी राघवन अंग्रेजी के हाइकुकार हैं, रामेश गौरी राघवन अपने हाइकु में चन्द्रमा के पश्चिम की ओर जाने पर प्रतिस्पर्धा की परिकल्पना करते हैं-


पश्चिमी ओर...
क्या चन्द्र से होगी
प्रतिस्पर्धा ?


-रामेश गौरी राघवन
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(समय सीमा के बाद प्राप्त एक अनमोल हाइकु)-

चाँद ये कहे
राह है मुझ तक 
मन तो बना

-अरविन्द चौहान

 बिल्कुल नई दृष्टि से चित्र को अरविन्द जी ने देखा है, संसार में कठिन से कठिन लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है मन में हौसला होना चाहिए.....दुष्यन्त के इस शेर की तरह यह हाइकु भी अदम्य प्रेरणा देने वाला है- "कौन कहता है कि आकाश में सूराख नहीं हो सकता" .......

.....................

-डा० जगदीश व्योम
सम्पादक
हाइकु दर्पण




Friday, 16 December 2011

फेसबुक के अभिव्यक्ति समूह में कार्यशाला का आयोजन

रविवार, ४ दिसंबर २०११ से शनिवार १० दिसंबर २०११ तक, हाइकु सप्ताह के अवसर पर फेसबुक के अभिव्यक्ति समूह में एक हाइकु कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस अवसर पर अनेक जाने माने कवियों सहित अनेक नए सदस्यों ने हाइकु कविता को समझने का प्रयत्न किया और अपनी-अपनी समझ से, दिये गए विविध विषयों पर हाइकु लिखे। इनमें से सभी हाइकु, कविता की दृष्टि से उत्कृष्ट हों यह संभव नहीं है, क्यों कि बहुत से लोगों का यह पहला प्रयत्न था, लेकिन कार्यशाला की दृष्टि से रचनाकारों का यहाँ आना, एक नई विधा को सीखना तथा देश व दूरी की सीमाओं को पार कर हाइकु से जुड़ना एक सफल आयोजन अवश्य बन गया।

एक सप्ताह के भीतर देश-विदेश के लगभग ४० सदस्यों ने ५०० से अधिक हाइकु यहाँ लिखे। कार्यशाला में लिखे गए सभी हाइकु यहाँ प्रकाशित किये जा रहे है। यह उन सभी सदस्य रचनाकारों को सम्मानित करने का एक छोटा-सा प्रयत्न हैं जिन्होंने अपना अमूल्य समय इस कार्यशाला को दिया।
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१- त्रिलोक सिंह ठकुरेला -
त्रिलोक सिंह ठकुरेला का जन्म ०१ अक्टूबर १९६६ को नगला मिश्रिया, हाथरस (उत्तर-प्रदेश) में हुआ।  विभिन्न पत्र-पत्रिकाओ में दोहे, गीत, नवगीत, बालगीत, लघुकथा, कहानी आदि का प्रकाशन। अनेक समवेत संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा वाग्विदांवर सम्मान तथा पुष्पगंधा प्रकाशन कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा हरिठाकुर स्मृति सम्मान से सम्मानित। सम्प्रति- उत्तर पश्चिम रेलवे में इंजीनियर


हाइकु-

सूर्य आकर
बटोरता ही रहा
धरा के मोती

बढ़ी ठंडक
प्रकृति ने ओढ़ ली
श्वेत चादर

चांदनी रात
प्रकृति कर रही
कैसे इशारे

हुई निहाल
चाँद-सा प्रियतम
धरा ने पाया

लिखता रहा
मनचाही किस्मत
कठोर श्रम

घोलती रही
जीवन में जहर
शहरी हवा

पगडंडियाँ
पहुँचातीं रही
इरादों को ही

सजने लगे
सब की बैठक में
कागजी फूल

ठगती रहीं
मृग-मरीचिकाएँ
जीवन भर

किसके हुए
मकरंद के बिना
स्वार्थी भ्रमर

थके कबीर
मन की कहकर
न माने लोग

रोया पहाड़
आदमी ने बिगाड़ा
उसका रूप

चहकी भोर
सूर्य को देखकर
प्रेम उमड़ा

किसकी हुई
मतलवी दुनिया
किसको पता
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२- कमला निखुर्पा

५ दिसम्बर १९६७ को जनमी कमला निखुर्पा केन्द्रीय विद्यालय वन अनुसंधान संस्थान देहरादून (उत्तराखंड) में स्नातकोत्तर शिक्षिका (हिन्दी) हैं। उनकी रचनाएँ पिछले अनेक वर्षों से नियमित रूप से पत्र, पत्रिकाओं एवं वेब पर प्रकाशित होती रहती हैं।

हाइकु

निशा समेटे
तारों भरी चूनर
लो उषा आई

उषा के गाल
शर्म से हुए लाल
सूरज आया

आया सूरज
किरणें इतराई
हँसा कमल

खिले कमल
महकी यूँ फ़िजा
भँवर जागा

जागे भँवर
गुन्जारे गुनगुन
तितली नाची

नाचे तितली
ता थई ता थई ता
हँसी दिशाएँ

हँसी दिशाएँ
गगन भी मगन
बावली धरा

बावली धरा
ओढ़े धानी चूनर
गाए रे पंछी

गाए रे पंछी
गीत मनभावन
झूमे रे मन
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३- अश्विनी कुमार विष्णु

संप्रति सीताबाई आर्ट्स कॉलेज अकोला (महाराष्ट्र) में अंग्रेज़ी के ‘एसोसिएट प्रोफेसर’ एवं विभागाध्यक्ष, अश्विनी कुमार विष्णु का जन्म २५ सितंबर १९६६ को गाँव-मानावाला, तहसील-ठाकुरद्वारा, ज़िला-मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) में हुआ। उन्होंने बी॰एस-सी॰, एम॰ ए॰ (अंग्रेजी साहित्य), तथा पी-एच॰ डी॰ तक शिक्षा प्राप्त की। उनके तीन काव्य संग्रह- सुरों के ख़त, सुनहरे मंत्र का जादू और सुनते हुए ऋतुगीत प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त अनेक अंग्रेजी व हिंदी पुस्तकों पत्रिकाओं में लेखन व संपादन। आकाशवाणी व दूरदर्शन से रचनाओं का प्रकाशन प्रसारण। अनेक शोध-पत्र विभिन्न समीक्षाग्रन्थों में संकलित-प्रकाशित। उन्हें ‘होम ऑफ़ लेटर्स’, भुवनेश्वर का ‘एडिटर्स चॉइस अवार्ड-२००९’, अखिल भारतीय गुजराती समाज संस्था का ‘साहित्य-गौरव सम्मान-२०११ प्राप्त हो चुका है।

हाइकु

प्रेमहंसिनी
रूठो तो लगती हो
मानसरोवर

सूखे होठों में
चुंबन की सीलन
रोए रातों में

मन भीतर
मैं चीखूँ जंगल में
वनतीतर

तुम हो संग
गूँज रही मन में
जलतरंग

चाँद मुझे मैं
चाँद को ताकूँ चाँद
कहाँ हो तुम

तुम बाँहों में
खिली हुई पूनम
खजुराहो में

बनूँगा मोती
प्यास तुम्हारी सीपी
मैं स्वातिमेघ

कहै कबीरा
माया जग में भाया
ठाठ फकीरा

तुमसे ही हैं
ये सुबहें नारंगी
शाम अनारी

तुम्हारी आँखें
बर्फ़-बर्फ़ धूप में
मुग्ध पेंग्विन

उफ़ ये सर्दी
जम न जाए कहीं
तुम्हारी याद

मुआ कुहरा
तुम याद आते ही
हुआ दुहरा

ऋतु बदली
फूल फूल गोपाल
राधा तितली

ऋतु के नाम
रँग भरी पाती की
टेसू ने आम

स्त्री बन चाँद
चुनता दिन भर
धूप के फूल

पहाड़ के तो
जेठ सावन माघ
सभी निराले

बहती रही
डुबोती रही नदी
फूलों के दोने

लोकतंत्र में
जनता कभी नैना
कभी भँवरी

बिना तुम्हारे
ज्वाला चंदन काँटा
हर सिंगार

जब भी टूटे
मन का दरपन
बस हौले से

तुम सजनी
राग सिंगार भरी
गंगालहरी

बाट जोहते
प्रिय की उम्र कटी
सज-धज में

छूने भर से
तन-मन बरसे
प्रेमफुहार
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४- सुभाष नीरव

भारत सरकार के एक मंत्रालय में अनुभाग अधिकारी सुभाष नीरव हिंदी में लेखन के साथ-साथ गत ३५ वर्षों से पंजाबी से हिंदी में अनुवाद कर्म से सम्बद्ध हैं और लगभग ४०० कहानियों, अनेक लघुकथाओं और कविताओं का हिंदी में अनुवाद कर चुके हैं। उनके तीन कहानी संग्रह दैत्य तथा अन्य कहानियाँ, औरत होने का गुनाह, आख़िरी पड़ाव का दु:ख, दो कविता संग्रह, यत्किंचित, रोशनी की लकीर, एक बाल कहानी संग्रह, मेहनत की रोटी, दो लघुकथा संग्रह, कथाबिंदु,(सहयोगी लेखक रूपसिंह चन्देल और हीरालाल नागर) एवं सफ़र में आदमी प्रकाशित हुए हैं तथा वे नेट पर साहित्य और अनुवाद से जुड़े निम्नलिखित छह चिट्ठों का संचालन करते है- सेतु साहित्य, कथा पंजाब, गवाक्ष, वाटिका, सृजन-यात्रा और साहित्य सृजन।

हाइकु

हर तरफ़
रंग, फूल, सुगंध
आया वसंत।

गुनगुनाये
फूलों पे मंडराये
लोभी भंवरा।

रंग-बिरंगे
फूलों की सहेलियाँ
ये तितलियाँ।

मन-इच्छाएँ
उड़तीं पंख फैला
तितलियों-सी।

तितलियों –सी
मन की कामनाएँ
खूब छकाएँ।

सुख किंचित
दु:ख हैं बहुतेरे
फिर भी जीना।

ओस की बूंदें
खूब रोया रात में
आकाश जैसे।

लजाया सूर्य
चूमता धरती को
ओढ़ अंधेरा।

थका सूरज
सो गया ओढ़कर
काली चादर।

उगा सूरज
समेट के चादर
भागा अँधेरा।

घर बनाये
सागर तट पर
फिर भी प्यासे।

उफ्फ ! ये जाड़ा
सूरज भी दुबका
ओढ़ रजाई !

कंपकंपाती
ठंड में सूरज ने
कर ली छुट्टी।

भाये हीटर
गुनगुनी धूप का
शीत ॠतु में।

शीत हवा में
ठिठुराते बदन
आग खोजते।

मारें थपेड़े
बाज कहाँ आती हैं
ठंडी हवाएँ ।

रात लजाये
ओढ़कर चूनर
सितारों वाली।

हवा चुप है
आने वाला है कोई
यहाँ तूफ़ान।

पंछी तोड़ते
रात के सन्नाटे को
पौ जब फटे।

मिट्टी के संग
मिट्टी होता किसान
मिट्टी हो गया।

चीर के सीना
किसान धरती का
बोता सपने।

बिजली-पानी
न मिले समय से
रोतीं फसलें।

कभी बाढ़ तो
कभी सूखा लीले
सपने सारे।

कर्जे में दबा
किसान कराहता
उठ न पाता।

फसलें कहाँ ?
खेतों को लील गया
कंक्रीट-वन।
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५- संध्या सिंह

लखनऊ की संध्या सिंह के जीवन में लिखने पढ़ने की पुरानी रुचि है। विज्ञान में स्नातक होने के बाद उन्होंने अपना समय अपने परिवार की देखभाल में बिताया। अब उत्तरदायित्व कम होने पर कंप्यूटर के द्वारा फिर से साहित्य की नई पारी शुरू की है। वे गीत नवगीत हाइकु गजल आदि सभी विधाओं में अच्छा लिख रही हैं। उनकी कुछ रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं और जल स्थलों पर भी प्रकाशित हुई हैं।

 हाइकु

दरों दीवारें -
कांपती संसद की,
एक प्रहार

जा दुबके हैं,
बिल में बुजदिल,
सिंह गर्जना।

ठंडा सूरज ,
कंपकंपाता हुआ ,
झील में नीचे

गहरी चुप्पी ,
ज़मीन के अंदर
लावा शब्दों का

रात की चुप्पी
खोल के रख देती
बीती गठरी

चाँद से दूरी
चाँद का आकर्षण
तो ज्वारभाटा

बूंद स्वेद की -
रजत सी चमके,
श्रम शृंगार

चन्दन वृक्ष ,
महकता विष भी ,
लिपटे नाग

धुँधला होता -
समय का दर्पण ,
धूल हटे ना

सब से ऊंचा -
विजयी हिमालय ,
लेकिन तन्हा

मन तितली ,
सपने गुलशन ,
मन पकडो

मेरा सपना -
छुई मुई का पौधा ,
छूने का भय

ढहता बाँध ,
आता हुआ सैलाब ,
टूटता सब्र

प्रभु की सत्ता ,
समर्पित जनता ,
अनूठा राज

ठोस पहाड़ ,
सुरंग व सड़कें ,
बीधें मानव

हरी स्मृतियाँ
अम्बर सुबकता
ओस की बूँदें

रीढ़ विहीन
नींद से उठकर
आया चुनाव

सुखी संसार
बंगला टीवी कार
माँ बीमार

पहली बाढ़
उड़ा ले गई बाँध
रे भ्रष्टाचार

साँसों की बंसी
धडकन की ताल
उम्र संगीत

नीला अम्बर
उड़ती है कपास
हल्की फुहार

बहती नदी
पहाड़ के अंदर
बाहर ताला

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६- श्रीकांत मिश्र कान्त
श्रीकान्त मिश्र 'कान्त' का जन्म १० अक्तूबर १९५९ को गाँव बढवारी ऊधौ, लखीमपुर खीरी (उत्तर प्रदेश) में विजयादशमी की पूर्व संध्या पर हुआ। १९७७ में आपात स्थिति के अन्तर्गत लोकनायक जयप्रकाश के आह्वान पर शाहजहाँपुर बदायूँ और पीलीभीत में भूमिगत रहकर गाँव गाँव पदयात्रा करते हुये जन आंदोलन में सक्रिय भाग। अनेक समाचार पत्रों में कविता, कहानी एवं आलेख प्रकाशित। विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, अन्तरजाल पर हिन्दी साहित्य को समर्पित तृषाकान्त तथा साहित्यशिल्पी का सम्पादन एवं सहयोग। यूनीकोड देवनागरी के प्रयोग हेतु विद्यालयों में कार्यशाला के माध्यम से कम्प्यूटर पर हिन्दी के प्रचार प्रसार में सक्रिय योगदान। गृह मंत्रालय से राजभाषा शील्ड और नकद पुरस्कार के साथ हिन्दी में योगदान के लिया अनेक बार सम्मानित। संप्रति कोलकाता में वायुसेना के वैमानिकी प्रशिक्षण विद्यालय में सूचना तान्त्रिकी एवं वैमानिकी प्रभारी प्रशिक्षक (विद्युत)।

हाइकु

नीरव निशा
पूर्णिमा तमसित
चन्द्रग्रहण

राष्ट्र हुंकार
स्वतन्त्रता की खाद
आजादी मिली

अधिनायक
राजनीति्क पशु
विप्लव हुआ

नेता वन्दना
भ्रष्टाचार उपजा
सत्ता बदली

सत्ता सुन्दरी
मदहोश है राजा
हमला हुआ

नीति से प्रीति
उपजी मानवता
हाइकू बना

रिसता रिश्ता
झिलमिल झलका
मोती झरता

उसका साथ
चकमक पत्थर
चूल्हा जलता

मंदिर सीढ़ी
जगमग दीपक
सूर जलाये
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७- भावना सक्सैना
दिल्ली विश्वविद्यालय से अँग्रेजी और हिंदी में स्नातकोत्तर भावना सक्सैना ने अनुवाद प्रशिक्षण में स्वर्ण पदक प्राप्त किया है। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग में कार्यरत वे संप्रति विदेश मंत्रालय द्वारा सूरीनाम स्थित भारत के राजदूतावास में अताशे (हिंदी व संस्कृति)  पद पर प्रतिनियुक्त हैं और वहाँ हिंदी प्रचार प्रसार के लिए कार्य कर रही हैं। आपके प्रोत्साहन से सूरीनाम के हिंदी लेखकों में नव-ऊर्जा का संचार हुआ है। आपने सूरीनाम साहित्य मित्र संस्था द्वारा प्रकाशित प्रथम कविता संग्रह ‘एक बाग के फूल और कवि श्री देवानंद शिवराज के कविता संग्रह "अभिलाषा" का संपादन किया और प्रवासी भारतीय साहित्य पर कार्य कर रही हैं। समय समय पर उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती हैं।

हाइकु

बालक मन,
कितने आकर्षण
भावोद्विग्न।

अबूझे प्रश्न
तिरते अनगिन
खोजें उत्तर।

जुगनू दीप
टिमटिम करते
स्वप्न सजे हैं।

उगता सूर्य
निरखा एकटक
उर स्पंदित।

निर्जन वन
निविड़ अंधकार
स्तब्ध पवन

मन दर्पण
इक दिन चटका
असीम त्रास।

कितने राग!
प्रेम द्वेष उल्लास,
श्रेष्ठ संयम।

बिंदी न लाली
नायिका का श्रृंगार
प्रिय का स्पर्श।

रिझाये विश्व
चन्दन की सुगंध
परोपजीवी

ऊंचा शिखर
उस पर जो चढ़ा
बस एकाकी।

महान गिरि
कण कण से बना
कण को भूला।

उड़ती खुशी
नीली तितली सम
कैसे पकड़ें?

एक गुलाब
रंग खुशबू संग
बन ही जाओ।

नवल क्रांति
अब शुरू हो चुकी
सब दें साथ।

खोखले वादे
बीत गए बरसों
परिवर्तन।

निरीह राजा
वानर राज फैला
कष्ट में प्रजा।

आज का राजा
निर्णय में अक्षम
सब बेदम।

शांत नदी
किनारों में बंधी
चलती रही।

आया ज्वार
तोड़ सीमाएँ
मचल उठी।

बरसा मेह
नभ से झरझर
तृप्त जीवन।

सुख सुविधा
सब कुछ पास
फिर भी प्यास।

तुम लाए
स्नेह अकिंचन
नवजीवन।

देख दर्पण
आक्रांत हुआ मन
बीता यौवन।

खाली नीड़
अश्रुप्लावित मन
बिखरा जीवन।

बरसों बीते
गाँव की गलियां
नाम पूछतीं।

बिसरी सखियाँ
छूटा अल्हड़ बचपन
गृहस्थ जीवन।

छप्पर उतरा
चढ़ा दुमंजिला
सिमटी धूप
--------------------------------------------------------------------
८- अनिल वर्मा
९ अगस्त १९५० को जनमे अनिल कुमार के बचपन से जीवकोपार्जन तक के समस्त क्रिया-कलापों का साक्षी लखनऊ रहा है। 'कविता करना' और 'कवि होना' दोनों में अंतर है।  अतएव, साहित्यिक गति-विधियाँ लखनऊ की गलियों तक सीमित रही हैं।

हाइकु

चलीस चोर,
अकेले अलीबाबा,
जागो! भारत

जान हुंकार,
सशक्त लोकपाल,
आर या पार

नीला अम्बर,
यत्र-तत्र-सर्वत्र,
मोती ही मोती

सुहानी शाम,
गुमसुम नयन,
देहरी पर

आज पूर्णिमा,
छिपा कहाँ चंद्रमा,
चंद्र-ग्रहण

घोर सन्नाटा,
निर्निमेष नैन,
ताकते द्वार

अभिव्यक्ति में,
राजनीति का खेल,
चुप क्यों रहें

निविड तम,
तन-मन विह्वल,
खामोशी टूटे!

कटते वन,
चंदन की महक,
कविता मात्र

रूप-शृंगार,
हृदय तार-तार,
विडम्बना

अभिसारिका,
राग, रागिनी, नेह,
ढूढो किताब

बारम्बार,
निहारती दर्पण
कोई आयेगा

ठंड से भीत,
पत्तियाँ पियराईं,
बसंत आजा

ये रहनुमा,
तितली की तरह,
बसचूसते

मधुमक्खियाँ,
तितलियों सी नहीं,
देतींशहद

निर्मल गंगा,
कठोर परिश्रम,
भगीरथ का

शिशिर बीता,
बसंत आगमन,
आओ! महकें

ये लोकतंत्र,
है विग्यापन मात्र,
मुखौटे नोचो

जागते रहो!
विकसित भारत,
सपना नहीं

कोहरा घना,
काँपता जन-गण,
सूरज आजा

एकाकीपन,
कुछ अनुभूतियाँ,
इन्हें ही जियो

लोकतंत्र में,
जनलोकपाल ही,
सच्चा सपना
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९- शारदा मोंगा
भारतीय तथा न्यूज़ीलैंड की दोहरी नागरिकता प्राप्त शारदा मोंगा सम्प्रति आकलैंड-न्यूज़ीलैंड में रहती हैं। उनकी प्राथमिक शिक्षा बनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान, भारत में तथा उच्च शिक्षा राजस्थान विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर उपाधि के साथ हुई। उन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत, सितार वादन तथा चित्रकला में विशेष योग्यता प्राप्त है। गत वर्ष उनके चित्रों की एक प्रदर्शनी 'आइना', सिआटल-अमेरिका में लगी थी। वे कविता लिखने में रुचि रखती हैं।

 हाइकु

हाइकु छोटी-
सन्देश देती बड़ा,
नन्ही कविता

छोटी सी रानी,
लम्बी चुटिया वाली,
बड़े काम की,

चलती जाय,
जोड़ जोडती जाय,
बड़े काम की,

फटा जोडती,
नया जोड़ जोडती,
बड़े काम की

दिल न तोड़ो,
सिल नहीं सकेगा,
नहीं काम की

रंगबिरंगे,
फूल, सजी बगिया,
बसंत आया

बसंत आया,
कोयल कुहू कूके,
आम्र बौराया

भ्रमर-गूँज,
पुष्प सजीले रंग,
भीन्ही सुगंध

हंसता चन्द्र,
चांदनी खिली खिली,
मधु रजनी

वन उपवन
उत्सव-पंचम राग
कोकिला कूके

वातावरण
उदासी का आलम,
सन्नाटा छाया,

कैसी ख़ामोशी,
हवा सर्र सर्राती
भयभीत हूँ

वन सुर्भित,
शांत वातावरण,
आनंददाई

नव युवती ,
राग श्रृंगार किये,
सज धजती

ठंडक देता,
चन्दन टीका-लेप,
मस्तक पर

मुख निहार
शृंगार कर नारी
मुदित हुई

कोमल अंग
तन शृंगार किये
चली नायिका

पिय मिलन,
चन्दनलेप शोभिता,
अभिसारिका

देख दर्पण
राग शृंगार किये
चली मुदिता


फूल पत्तियां
सजी पुष्पवाटिका,
रंगबिरंगी

तितली रानी,
फर्र फर्र उडती,
फूल चूमती

भौंरा गुंजन,
औ' तितली नर्तन,
पुष्पवाटिका,

गंधित पुष्प
सुकोमल पत्तियां,
तितली झूमे

तितली नाचे,
रंग बांध, पैंजनी,
छमछमाछम

इधर उड़े
कभी उधर उड़े
तितली रानी

मुख चूमती,
रंग बिरंगे फूल-
तितली रानी

पुष्प सजे हैं ,
अनगिनत रंगीन,
वाटिका सोहे

लाल गुलाबी,
बैंगनी,नीले,पीले,
नाचे तितली

फूल फूल से,
रस पी रही यह,
तितली रानी

भ्रमर करे
गुंजार, झूम झूम
ख़ुशी से रस चूसे

मधु एकत्र,
भरा कलश रस,
मधुप झूमे

राजा सी प्रजा
अंधेर है नगरी,
चौपट राजा

हो जनतंत्र,
सब जन स्वतंत्र,
समृधि यंत्र

रोटी कपड़ा,
शिक्षा,मकान, दवा,
सब को मिला

स्वत्रंता धन ,
समान अवसर,
प्रजा प्रसन्न

लोकसभा में
हो रही तू-तू, मैं-मैं,
औ' जूतेबाजी

सिलसिला है-
हाईकू, नया रंग,
कवि हैं व्यस्त

पर्वत चोटी,
दृढ़-अडिग खड़ी,
है संकलप,

चलायमान
कल आज औ' कल
चल-संसार

कल था नया,
आज पुराना भया,
कल को नया

नव वर्ष हो
सुहाना, सुखमय,
हो प्रेममय
------------------------------------------------------------
१०- शशि पुरवार

२२ जून १९७३ को इंदौर (म.प्र.) में जनमी शशि पुरवार ने विज्ञान में स्नातक उपाधि लेने के बाद, स्नातकोत्तर अध्ययन के लिये राजनीति शास्त्र का चयन किया। उन्होंने तीन साल का कंप्यूटर साफ्टवेयर का डिप्लोमा लिया और मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव के रूप में भी कार्य किया। रचनात्मकता और कार्यशीलता उनकी पहचान है और लेखन उनकी अभिरुचि। वे बचपन से लिखती आ रही हैं तथा पत्र-पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं।

हाइकु

कॉपी - पेस्ट
मूल दस्तावेजों
संग अपराध

शक , दीमक
रिश्तो में दूरियां
मकड़ीजाल

रचनाओं पे
शब्दों की समीक्षा
मेहनताना

माँ का दुलार
सुरक्षा का कवच
शिशु जीवन

मन की जीत
सुनहरा प्रकाश
प्रज्वलित

परिवार है
सुखी जीवन की
असली नीव

गुलशन में
फूलो संग लिपटी
हुई ख़ामोशी

विष सा कार्य
रिश्तो में शोषण
कड़वाहट

है जानलेवा
केंसर से खतरा
मदिरापान

दिल पागल
दीवानापन , प्यार
है दिलदार

बर्फीली घाटी
सन्नाटे को चीरती
हुयी ख़ामोशी

शब्द है गुम
मौन हुआ मुखर
खामोश बातें

एकाकीपन
बिखरी है उदासी
स्याही ख़ामोशी

आतंकवाद
जीवन के उजाले
की स्याही रात

गहन रात
छुप गया है चाँद ,
कृष्ण -पक्ष में

चुप है रात
ख़ामोशी लगे खास
वृन्दावन में

साक्षी है रात
कृष्ण -राधा का रास
वृन्दावन में

मन दर्पण
दिखता है अक्स
चेहरे संग

चन्दन टिका
मस्तक पे है सजा
शिव-शंकर

राग - बैरागी
सुर गाये मल्हार
छिड़ी झंकार

धरा -अम्बर
पे तारों की चुनर
सौम्य श्रंगार

तन चन्दन
जले मनमोहिनी
अगरबत्ती

मोहक रूप
फूलों संग श्रंगार
छुईमुई सा

सुंदर स्वप्न
तितली बन उड़े
अखिंयन में

है फूल खिले
गुलजार है मन
मधुबन में

सूखे है पत्ते
बदला हुआ वक़्त
पड़ाव , अंत

सूखी पत्तिया
बेजार हुआ तन
अंतिम क्षण

हिम शिखर
मनमोहिनी घटा
अप्रतिम सा

परिवर्तन
वक़्त की है पुकार
कदम ताल

नव वर्ष की
शुभ बेला है आई
ले अंगड़ाई

गहन रात
पूनम का ये चाँद
खिलखिलाता

मेरी जिंदगी !
मेरे ख्वाबों को तुम,
नया नाम दो

साँसों में बसी
है खुशबू प्यार की,
तुम जान लो

प्यार के पल
महक रही यादें
तन्हाई संग

सुहानी धूप
सर्द हुआ मौसम ,
सिमटा वक्त

सजी तारो से
रात , बिखेरे छटा
पूनों का चाँद

बाजरा -रोटी
घी संग गुड डली
सौंधी -सी लगे

पीली सरसों
मक्के दी भाखरी ,लो
सर्दी है आई
---------------------------------------------------------------
११- मानोशी चैटर्जी
१६ जनवरी १९७३ को कोरबा छत्तीसगढ़ भारत में जनमी मानोशी चैटर्जी ने  रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर, बी एड तथा गायन में विशारद की की उपाधि प्राप्त की है। पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ लेख व कविताएँ प्रकाशित होती रहती हैं। व्यवसाय से शिक्षिका वे संप्रति कैनाडा में निवास करती हैं, साहित्य के अतिरिक्त शास्त्रीय संगीत व ग़ज़ल गायन में उनकी रुचि है। आकाशवाणी से उनकी ग़ज़लें प्रसारित हो चुकी हैं।
हाइकु


टेढ़ी मुस्कान
गहरी काली स्लेट
क्या मोनालीसा?

डाल से टंगी
टपकी लो टपकी
झुलसी रोटी

फागुनी चाँद
चाँदनी उबटन
गोरा आसमां

गोल पत्थर
बादल का फ़ॉसिल
प्रदर्श चांद

चरखी घूमी
चिंगारियाँ छिटकी
गगन सजा

उफ़नती लहरें
उठ कर चूमती
चांद के होंठ
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१२- प्रतिभा बिष्ट अधिकारी

१९६४ में कौसानी में जन्मी प्रतिभा बिष्ट अधिकारी ने  प्राचीन भारतीय इतिहास में १९८६ में कुमाऊँ विश्वविद्यालय नैनीताल से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। वे वर्तमान में इलाहाबाद में रहती है और कविताएँ तथा लेख लिखने में विशेष रुचि रखती हैं।

हाइकु

नटवर से
नटखट बने हो
कान्हा कहूँ मैं

पिताजी तुम
आदर सम्मान हो
माँ तुम स्नेह

नव वर्ष तू
नवगीत बन आ
गाऊं जिसे मैं

शरद तुम
मुरझाए से क्यों हो
धूप ले आओ

सर्दी की शाम
स्याह चादर ओढ़े
हो जैसे रात

एक झूठ तू
संवाद भी तेरे हैं
बुलबुले से

जी का जंजाल
है ये सारा संसार
माया मुग्ध है

तुम्हारा झूठ
सच के साथ मिल
दोस्ती निभाए

हिमालय से
ऊँचे अरमान हों
भारत तेरे

फूलों के रंग
चुराऊं दूर कहीं
उड़ जाऊं मैं

शिखर तुम
वीरान लगते हो
बर्फ के बिन

पात - पात में
मोती बन चमके
बूंदे ओस की

गजरे में हो
महक बने तुम
अर्थी में आंसू

पत्तियों तुम
पेय बन आ जाती
हो प्यालियों में

खामोश शब्द
सुन लिए हैं मैंने
तेरे नैनों से

तुम चुप हो
पर ये खामोशियां
बोल सुनाती

दर्पण मुझे
साथी सा लगे रोज
साथ निभाए

संदली काया
नहीं है मेरा सत्य
बस आत्मा है

कटु राग भी
सुने थे मैंने कुछ
हार ना मानी
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१३- अरुणा सक्सेना 

४ दिसंबर १९६४ को बुलंदशहर, उत्तरप्रदेश में जन्मी अरुणा सक्सेना ने धर्म समाज डिग्री कालेज  अलीगढ (आगरा विश्वविद्यालय) उत्तर प्रदेश से १९८७ में परा स्नातक (अर्थशास्त्र) की उपाधि प्राप्त की और अध्यापन को व्यवसाय के रूप में अपनाया। उनकी रुचि संगीत सुनने, गुनगुनाने, पुस्तके पढ़ने में है। वे देश और दुनिया की जानकारी रखना पसंद करती हैं और अपने मन की भावनाएँ कागज पर उतारती हैं। उनकी रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं व अंतर्जाल पर प्रकाशित हो चुकी है।

हाइकु

लघु या दीर्घ
वृक्ष भोजनालय
हरी पत्तियाँ

हरित लावक
महत्त्व समझाए
हर पत्ती का

सुंदर तितली
पराग आकर्षण
छोड़ ना पाए

खिले हैं फूल
प्रसन्न चित्त हुआ
बगिया देख

मन हरती
मंडराती तितली
उडती जाय

मिल फूलों ने
महकायी बगिया
खुश हुआ मन

उत्तर प्रहरी
अचल गिरिराज
मन निश्चिन्त

बधाई हो
वीरेंद्र को हमारी
मान बढाया

शतक वीर
अपना सहवाग
गौरव क्षण

प्रजातंत्र का
बन रहा मज़ाक
यहाँ है लाठी राज

कसी लगाम
अभिव्यक्ति भी बनी
एक गुलाम

लोकतंत्र में
जनता है अवाक
हम गुलाम

परिधि सेतु
केंद्र पर निर्भर
वृत्त नियति

शीत का आना
एक आनंद विधा
निद्रा आगोश

उचटा मन
बौखलाया मानव
दिन खराब

सितारों भरा
चमकता आकाश
एक स्वप्न

एक परीक्षा
परिणय बंधन
शुभकामना

नया महीना
भुगतान कतार
चिंतित मुद्रा

सजे स्वप्न
मन में विश्वास
हुए सफल

गरम चाय
मलाई का मिश्रण
आहा ! स्वादिष्ट

न बदलता
जग में स्थिर है
परिवर्तन

शरद आया
स्वादिष्ट गरम
भोजन भाया

गज़क बहार
ठंडी आइसक्रीम
पर प्रहार

गहरी निद्रा
सपनो का संसार
दूर थकान

व्यथित नर
पल-पल परीक्षा
पास या फेल

वृत्त केंद्र
असीमित क्षमता
आकर्षण की

सोच -विचार
मन अकुलाहट
एक रचना

धन अभाव
असीमित क्षमता
टूटे स्वप्न

वाह ! श्रृंगार
दुल्हन शरमाये
दर्पण देख

गंगा नहा के
चन्दन लेप लगाया
मस्तक पर

निर्मल मन
चन्दन सा तन है
क्यों शृंगार ???

स्याह भुजंग
चन्दन सुगंध से
हुए मादक

जिंदगी राग
अलग साज़ पर
सभी ने गाया

अश्रु पूरित
अग्रज के नयन
विदा बहन

रात्रि आरंभ
चहकती नींद ने
पाँव पसारा

तम हराया
टिमटिमाती लौ ने
विजयी दीप

झुकी पलकें
निंदिया आगमन
चिंतन मुक्त

असहनीय
अँधेरे का सन्नाटा
भोर प्रतीक्षा

खामोश रात
माँ की सुरीली लोरी
पलकें भारी

बंद आँखे
गहरी निद्रा आई
सजे सपने
------------------------------------------------------------

१४- ज्योतिर्मयी पंत

नैनीताल में जन्मी ज्योतिर्मयी पंत ने एम. ए. ,एम. फिल. (संस्कृत) उपाधियाँ प्राप्त करने के बाद अध्यापन को व्यवसाय के रूप में चुना और तंज़ानिया, शिमला, शिलौंग व दिल्ली के स्कूलों में अध्यापन के बाद सम्प्रति अवकाशप्राप्त जीवन व्यतीत कर रही हैं। पढ़ना-लिखना उनकी अभिरुचि है और पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं। उनका एक कविता संग्रह ओ माँ नाम से प्रकाशित हुआ है तथा २०१०-११ में उन्हें उद्भव मानव सेवा सम्मान चुना गया है।

 हाइकु

पत्तों पै बूँदें
चमक मोती मणि
क्षणभंगुर

जीवनाधार
शक्ति पत्र-पुष्प से
ईश पूजित

पूजार्पण में
रंग रस गंध जी
इत्र हो अंत

पिता हिमाद्रि
अडिग ऊर्जा -नीर
दे संजीवनी

तितली बन
सुख-भोग लालसा
मन उड़ता

विश्व वाटिका
सुख ख़ुशी कलियाँ
कष्ट शूल भी

तुलसी दल
सुपूजित अँगना
औषधि बने

स्नेह बिन तो
जले न बाती दीया
निराश मन

प्यार की भाषा
गूंजेगी प्रतिध्वनि
सभी दिलों में

नर या घर
ढांचे अस्थि प्रस्तर
दिलों में प्यार

उषा व संध्या
सजाएँ लाल बिंदी
सूर्यानुराग

घर बगिया
फुलवारी रिश्तों की
महके प्यार

विश्वास पुल
जोड़े दिलों की बस्ती
स्नेह व्यापार

अंध पूजक
बलि बकरे पोषे
बच्चे हों भूखे

बूढ़ों की वाणी
स्व अनुभूत सत्य
प्रकाश स्तम्भ

कमल पत्र
न भीगें जलमध्य
बैरागी मन

जीवन संध्या
अस्त प्रचंड सूर्य
निस्तेज वृद्ध

बुरे वक्त में
रिश्ते खुलें प्याज़ से
अन्दर शून्य

चाँद में दाग
कुदृष्टि से बचाए
लगा डिठौना

रूढ़िवादिता
स्व जाल बद्ध-त्रस्त
बदलें ज़रा

नव पुराण
चक्र हैं समय के
प्रगति पथ

आज नया तो
कल पुराना ,लौटे
फैशन यहाँ

परिवर्तन
शिशु युवा बुढ़ापा
जीवन सत्य

ये पतझड़
नव पल्लव हेतु
स्थान बनाये

प्यारी बिटिया
बहू-माँ बन सींचे
नव अंकुर

बीते विपदा
सुख समृद्धि लाये
नववर्ष ये

स्वागत तेरा
खिले मन में ख़ुशी
नववर्ष आ

नए वर्ष में
पुराने रोष छोड़
नूतन प्रण

हिमकणिका
धूप सेंके लटक
छत से झूले

श्वेत पुष्प से
रुई सा झरे हिम
पूजे धरा को

सूर्य सर्दी में
कुहाँसा ओढ़नी से
झाँके छुपके

धरती माता
ओढ़े श्वेत रजाई
छुपी शीत से

हाथ मलते
शीत में धूप हर्षे
अलाव प्यारे

दशक बीते
कल्पना रामराज्य
रहा स्वप्न ही

राजा न रहे
वेश रूप बदले
वंश राज है

पा आश्वाशन
प्रजा चुनती नेता
वायदे झूठे

लोग पूजित
चुनाव आने पर
मन भ्रमित

प्रजातंत्र में
जन सुख - समृद्धि
आस लगाते

कुर्सी की होड़
भ्रष्टाचार बल छल
व्यस्त हैं नेता

निशा आकर
सजी चूनर ओढ़े
प्रतीक्षा चाँद

शब्द हों चुप
आँखें रहस्य खोलें
खामोश हो के

वीरान रात
पत्तों की चरमर
तोड़े सन्नाटा

बिन बोले ही
कह गयी रजनी
प्रेम कहानी

मौन सदैव
स्वीकृति नहीं लक्ष्य
खामोश सत्य

छाया सन्नाटा
तूफ़ान से सजग
रात वे जागे

मिलन वेला
चिर प्रेमियों मध्य
ये निःशब्दता

मधुर वाणी
तप्त दुखी ह्रदय
चन्दन लेप

धन्य चन्दन
लिपटते भुजंग
दे शीतलता

ओ मलयज
देव मनुज प्रिय
सुप्रसाधन

हाथ दर्पण
सच का सामना हो
छलता नहीं

प्रतिबिम्ब दे
उजागर यथार्थ
सच्चा सुहृद

हरा लहँगा
तारों भरी ओढ़नी
चाँद बिंदिया

नीव जीवन
नेह डोर से बांधे
रिश्ते दिलों के

प्रेम की शक्ति
आधार शिला बन
शत्रु को जीतें
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१५- मीना अग्रवाल


२० नवंबर १९४७ को  हाथरस में जन्मी डॉ. मीना अग्रवाल ने एम.ए., पी-एच.डी. तथा संगीत प्रभाकर की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने अध्यापन को अपना कार्यक्षेत्र चुना और  हिदी विभाग, आर.बी.डी. महिला महाविद्यालय, बिजनौर में अवकाश प्राप्त करने तक एसोसिएट प्रोफ़ेसर, के पद पर कार्य किया। इसके पश्चात वे संपादन एवं प्रकाशन के व्यवसाय से जुड़ीं। साहित्य के क्षेत्र में अनेक उपलब्धियाँ प्राप्त करने वाली मीना अग्रवाल ने कहानी कविता लेख आदि अनेक विधाओं में लेखन, संपादन और प्रकाशन का काम किया है। उन्हें अनेक संस्थाओं द्वारा हिंदी साहित्य एवं शोध के क्षेत्र में किए गए विशिष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया गया है।
हाइकु

भेड़ है प्रजा
मनमानी करे तो
मिलेती सजा

जैसा है राजा
सच्चाई कथन में
वैसी ही प्रजा

चौपट राजा
है अंधेर नगरी
रोएगी प्रजा

ताल तू बजा
नाचेंगे राजा-प्रजा
आएगा मज़ा

राजा की रानी
महलों में रहती
भरती पानी

बनेंगे राजा
फहराएँगे ध्वजा
ले तू जायज़ा

रात की रानी
क्यों बनी पटरानी
हुई हैरानी

सुनो कहानी
राजा भरता पानी
बात पुरानी

प्रजा सहती
मेहनत करती
भूखी रहती

गूँगी है प्रजा
तानाशाह है राजा
पाती है सजा

है लोकतंत्र
बँधे हैं नियमों से
नहीं स्वतंत्र

ये लोकतंत्र
चलते हैं जिसमें
जैसे हों यंत्र

है लोकतंत्र
न कोई अधिकार
न कोई मंत्र

है लोकतंत्र
हम हैं पराश्रयी
औ’ परतंत्र

है एकतंत्र
रचे सदा षड्यंत्र
ये लोकतंत्र

बीता जो कल
अंकुरित नवीन
मिलेंगे फल

बीते जो पल
उर में हलचल
मन बेकल

समय बीता
पुराने सपनों में
लगा पलीता

लगता भला
आना नए साल का
है जलजला

बनी मेखला
लिए हाथ में हाथ
मिटा फासला

परिवर्तन
नए का आगमन
है आवर्तन

काँपता तन
जाड़े में थरथर
तपता मन

संभावनाएँ
नए साल में त्यागें
दुर्भावनाएँ

मचा धमाल
आया है नया साल
मन में ताल

है नया साल
झूमती डाल-डाल
मन सँभाल

बड़ा सुहाना
मौसम है सर्दी का
गाए तराना

झरते पत्ते
मानो हैं बदलते
कपड़े-लत्ते

पेड़ का पत्ता
उड़ा, गिरा जमीं पे
प्रभु की सत्ता

डाली से पात
गुप-चुप करता
मन की बात

छाया वसंत
पुराने पत्ते झरे
दुखों का अंत

झुलसे पात
धूप, धूल, घुटन
सूखा है गात

फूल-सा खिला
आज आदमी, कल
धूल में मिला

खिलेंगे फूल
सुख के, हम दुख
जाएँगे भूल

नन्हा- सा फूल
न करो तोड़ने की
छोटी-सी भूल

पुष्प में बसी
रस-गंध मादक
तितली फँसी

रंगबिरंगी
तितली मोहे मन
बच्चों की संगी

पहाड़ मन
जब दबा बोझ से
बना सघन

नहीं बोलता
झूठ कभी दर्पण
राज़ खोलता

करो अर्पण
मन, बुध्दि औ’ ज्ञान
बनो दर्पण

दर्पण दिल
टूटकर करता
है झिलमिल

मन है जैसा
दिखाएगा दर्पण
संशय कैसा?

करो अर्पण
दूर हो मलिनता
बनो दर्पण

भावना जैसी
दिखाता है दर्पण
वैसी की वैसी

मन-चंदन
खिलता, महकता
करो वंदन

रूप-चाँदनी
फैली जग के पार
गंगा-जमुनी

जाग री जाग
कलियाँ हैं चटकीं
गा तू बिहाग

भीगी धरती
पिया हैं परदेस
आहें भरती

गले हरवा
गोरी सखियों-संग
खेले गरवा

वैरागी मन
मिलन को आतुर
तपता तन

सुबह आई
प्रीत की किरणों ने
आस जगाई

बजती बीन
मगन है मनवा
राग नवीन

मन की भोरी
नख-शिख शृंगार
ब्रज की छोरी

मन में राग
राधा के संग खेलें
कन्हैया फाग

सीजता गात
खनकती चूड़ियाँ
तमाम रात

चाँदनी रात
पिया हैं परदेस
नहीं सुहात

अँधेरी रात
चमकते जुगनू
हुआ ज्यों प्रात

हुआ सबेरा
दीप की लौ के नीचे
छिपा अँधेरा

मैं गुमसुम
न कोई आस-पास
तुम ही तुम

मनवा मौन
प्रेम झरते स्वर
बता तू कौन?

खामोश तट
भरले गगरिया
तू झट्पट

छाई खामोशी
उत्सव ही उत्सव
है ताजपोशी

सन्नाटा टूटा
बढ़ाई प्रेम-पींगें
आनंद लूटा

अनोखी रात
खुमारी भरे नैन
जागा प्रभात

खामोशी बोली
डोलता रहा मन
सूरत भोली

चुप-सी छाई
जागे सोए सपने
आवाज़ आई

भरदें ज्वाला
मोती-मोती से बने
शिक्षा की माला

व्याकुल नैना
निहारें टुक-टुक
बीती न रैना

योग की शक्ति
बने सुखी जीवन
रोगों से मुक्ति

गई न पार
खड़ी जीवन नैया
है मझधार

मकड़जाल
उलझाए सबको
है विकराल

मोड़ ही मोड़
संघर्ष ही संघर्ष
न जोड़-तोड़

गाँव-गाँव में
ज्ञान-ज्योति जलाएँ
बैठ छाँव में

बिसरी याद
जोड़ती तन-मन
करे संवाद

पीड़ा का पानी
निकलता आँखों से
कहे कहानी

मृगनयनी
है तोते जैसी नाक
चंद्रबदनी

छेड़ दो राग
ऐसा गीत सुनाओ
बने प्रयाग

जीवन मोड़
दु:खों की खाइयाँ
बनीं बेजोड़

चाहे अनेक
वेशभूषा, भाषा
सभी हैं एक

बैसाखी भोर
पसीना ही पसीना
न नाचे मोर

बजाता बैंड
जो हँसते-हँसते
है 'हँस' बैंड

दिल में आग
नफ़रत के शोले
तर दिमाग़

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१६- धर्मेन्द्र कुमार सिंह

२२ सितंबर, १९७९ को प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत में जन्मे धर्मेन्द्र कुमार सिंह का उपनाम सज्जन है। उन्होंने प्रौद्यौगिकी स्नातक (प्रौद्योगिकी संस्थान, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी) एवं प्रौद्यिगिकी परास्नातक (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की) की उपाधियाँ लेने के बाद सरकारी सेवा प्रारंभ की तथा स्वतंत्र लेखन जारी रखा। संप्रति वे एनटीपीसी लिमिटेड की कोलडैम परियोजना में वरिष्ठ अभियंता (बाँध) के पद पर कार्यरत हैं। अपने चिट्ठे कल्पना लोक के अतिरिक्त लगभग सभी प्रमुख वेब पत्रिकाओं तथा कुछ मुद्रित पत्र पत्रिकाओं में नियमित रूप से उनकी रचनाओं का प्रकाशन होता रहता है।

के हाइकु

छोटी सी कथा
सागर भर पानी
मीन सी तृषा

चंचल नदी
ताकतवर बाँध
गहरी झील

हवा में आई
मीन समझ पाई
पानी का मोल

पछुआ हवा
बिछड़ गए साथी
चोली दामन

स्नेह समाप्त
राख हुई वर्तिका
दीपक बुझा

पानी में नाव
छुपा नहीं सकती
दिल के घाव

रिश्तों की डोर
ढीली करते जाना
देना न छोड़

दिए जलाए
अंधकार मन का
मिटा न पाए

आज या कल
सबको है मिलता
कर्मों का फल

तू है चंदन
तुझको न छोड़ेगा
भुजंग-मन

बंदर-बाँट
बँटता रहा देश
मंत्री की ऐश

बात अजीब
धनी जन-सेवक
जन गरीब

मक्खी क्यूँ गई?
सरकारी दफ्तर
मारी यूँ गई

देखो ये दाँव
खाई की गर्दन है
शैलों के पाँव

झील सी आँखें
बर्फ जैसी पलकें
मछली सा मैं

फलों का भोग
भूखा मरे ईश्वर
खाएँ बंदर

मंत्र-मानव
जादूगर प्रगति
यंत्र-मानव

ढूँढ़े ना मिली
कविता भटकती
शब्दों की गली

नया जमाना
घुट रहा ईश्वर
सदी पुराना

चीनी सी तुम
नींबू सी नोंकझोंक
पानी से हम
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१७- मंजु गुप्ता

२१ दिसंबर १९५३ को ऋषिकेश, उत्तरांचल में जन्मी मंजु गुप्ता ने राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर तथा बी.एड. की उपाधि के बाद अध्यापन को व्यवसाय के रूप में चुना वे संप्रति श्री राम हाई स्कूल नेरूल में मुख्य अध्यापिका हैं। योग, खेल, जन सम्पर्क, बागबानी और कला उनकी रुचियां हैं। लेखन में पिछले कई वर्षों से सक्रिय रही हैं और एक कविता संग्रह प्रांत पर्व पयोधि, एक कहानी संग्रह दीपक, एक खंड काव्य सृष्टि प्रकाशित हो चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में उनके लेख व कविताएँ प्रकाशित होते रहते हैं। उन्हें अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है।

हाइकु

जाबांज मरे
देश भक्ति के लिए
नेता न मरे

मुसकरा के
जरा बात कर ली
दिल टटोले

नजर तीर
जब -जब है चला
घयाल किया

बात जुबां से
जब - जब निकली
कहानी बनी

चाँद से आप
चमको धरा पर
सूरज बन

बाग के फूल
देते अनेक दुआ
बन महक

घूसखोरों को
जमानत है मिले
सजा है टले

वादों का गढ़
मंत्री हैं अनपढ़
देश चलाए

ठंडी की मार
फसलों को जलाया
पड़ा है पाला

चुप खड़े हैं
रात - दिन बन के
नए सवाल

रजनी बाला
तारों के फूल लगा
ढूँढें चाँद को

खामोशी में
महकी रातरानी
बिछड़े मिले

आतंकी रात
धरती करी लाल
मांगे जवाब

जमाना चुप
चमन उजाड़ के
आहें दे गया

खामोश अदा
बढ़ाती है फासला
देती है सजा

घायल रात
तड़पाती मुझ को
जख्म भर जा

अमावस्या में
सनम लगते हो
पूनो का चाँद

प्रातः होते ही
चाँद गायब हुआ
ख़्वाब दे गया

गले मिल के
खामोशी जुदा हुई
करार कर

जुदा घड़ी में
रात करवटें लें
यादें छलकें

पूनो का चाँद
चमके आकाश में
राजा - सा लगे

खामोशियों में
इश्क की बाढ़ आई
डूबा -डूबा के

आदत डाली
क्यों मौन रहने की
मौत लगती

हाइकु राग
श्रृंगार - सा आइना
चंदन लगे

चंदन वन
जहरीले साँपों का
पनाहगार

ज्वाला विष की
हरे शीतलता से
मित्र चंदन

चंदन घिस
वेलपत्र सजाऊं
' पी ' पै चढाऊं

प्रेम चंदन
विषधरों ने चूमा
मुरीद हुए

हार श्रृंगार
किया है हजारों का
देखा न ' पी ' ने

करना है क्या
जग राग करके
सब है झूठा

दर्पण टूटा
निहारा जब रूप
रोग है लगा

लगे चंदन
शीतल होवे अंग
औषधि न्यारी

भोर की लाली
बन सिंदूर मांग की
सुहागन की

उगता रवि
लगे नारी की बिंदी
अजब प्यारी

खबर ताजा
पेट्रोल फिर बढ़ा
विवश सत्ता

मजबूर माँ
बेचा अजन्मा बच्चा
लाचार कोख

कालाबाजारी
दुकान पीढ़ियों की
सदा आबाद

हमारा नारा -
"मजबूत राष्ट्र हो"
मिले सहारा

होर्डिंग गिरा
स्कूली बच्चा मरा
अव्यवस्थाएं

अब वोट दो
इन्टरनेट पर
चिंतित लोग

रेल विभाग
कोहरे में लिपटा
रेले हैं रद्द

कासाब मस्त
खर्च हुए करोड़ों
जनता पस्त

माया की माया
हाथी -पुतले बढ़े
टीवी दिखाए

छाया कोहरा
रेल है टकराई
रोया है रिश्ता
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१८- मुकेश पोपली

भारतीय स्टेट बैंक, नई दिल्ली में राजभाषा अधिकारी के पद पर कार्यरत मुकेश पोपली का जन्म ११ मार्च १९५९ को राजस्थान के बीकानेर शहर में हुआ। उन्होंने एम.कॉम., एम.ए.(हिंदी) के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। उनकी कहानियों का एक संग्रह कहीं ज़रा-सा... राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा छपी हुई पुस्तकों के अंतर्गत चुना गया है। इसके साथ ही वे आकाशवाणी, अंतर्जाल तथा पत्र पत्रिकाओं नियमित रूप से सम्मिलित, प्रसारित प्रकाशित होते रहते हैं।

 हाइकु

हर्षित मन
जीवन में समाती
याद तुम्‍हारी

इंतजार तेरा
मिलन की रात
आएगी जरुर

दो मिनट
ढल जाएगी रात
रुक जरा

उजला चांद
शरमाई काली रात
छुप गई

मन मेरा
दर्पण सा लागे
निहार लो


आवाज आई
दर्पण टूटने की
दहला मन


फिर टूटा
दर्पण की इच्‍छा
व्‍याकुल मन

दरिंदे खुश
सपनों का संसार
तोड़ दिया

मन व्‍यथित
सपनों का संसार
बिखर गया

रचेंगे नया
सपनों का संसार
सबके हितार्थ
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१९- कल्पना रामानी

६ जून १९५१ को उज्जैन में जन्मी कल्पना रामानी आजकल नवी मुंबई में रहती हैं। हाई स्कूल तक औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उनके साहित्य प्रेम ने उन्हें निरंतर पढ़ते रहने के अभ्यास में रखा। परिवार की देखभाल के व्यस्त समय से मुक्ति पाकर उनका साहित्य प्रेम लेखन की ओर मुड़ा और कंप्यूटर से जुड़ने के बाद उनकी प्रतिभा को देश विदेश में जाना गया। वे गीत गजल छंदमुक्त कविता और हाइकु में विशेष रुचि रखती हैं। उनकी रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर प्रकाशित होती रहती हैं।

हाइकु

दूधों नहाई ।
पूनम की चाँदनी।
शरदोत्सव ।

छोटा सा गाँव ।
मेहमान थी बाढ़।
भग्नावशेष ।

बाग में मिलीं ।
सखियाँ बन गईं।
दो तितलियाँ ।

चंद्रमा आया ।
आधी रात के बाद।
रूठी पूर्णिमा ।

उनका आना ।
व्यथित कर गया।
वापस जाना ।

एक कोठरी ।
परिवार नियोजन।
बारह बच्चे ।

डूबते लोग ।
महा जलप्लावन ।
हेलीकाप्टर ।

ठंडी रोटियाँ ।
डाइनिंग टेबल ।
ट्राफिक जाम ।

कागा अटारी ।
अतिथि आगमन।
दाल में पानी।

घटते वन।
बढ़ती जनसंख्या।
टाउनशिप ।

पति का प्रेम ।
सात जन्मों का साथ।
चिर बंदिनी ।

बेटे का प्रेम।
सुरक्षित बुढ़ापा।
घर का कोना।

वर चाहिए ।
गृहकार्य में दक्ष।
सास के साथ।

बीवी उवाच ।
हम दो हमारे दो।
ससुराल क्यों?

सास की व्यथा ।
बहू पर टिप्पणी।
वर्जित फल ।

सास का साथ ।
बहुरानी को भाया।
बच्चे की आया।

बहुत सोचा
हाइकु नहीं जुड़े
आज मैं हारी

चलते रहो
साथ मेरे चन्द्रमा
बातें करेंगे

खामोश लब
मूक अभिवादन
पनपा प्यार

अनंत मौन
टूटी परछाइयाँ
बोलेगा कौन

तनहाइयाँ
हर पल का साथ
जीवन संध्या

सत्य चुप है
आतंक के साए में
झूठ बोलेगा

शासन मौन
पत्रकार शोषित
अँधा कानून

नेता चिंतित
कोहरे का कहर
उड़ाने रद्द

वादों की बाढ़
सुशासन आएगा
बंदर बाँट

फिर से आओ
गांधी, नेहरू,बोस
राजा भूखा है

खुशी मनाओ
पैट्रोल सस्ता हुआ
एक रुपया

शीत लहर
कंबल वितरण
चुनाव शुरू

सावन सजा
मधुबन मोहित
कलियाँ खिलीं

रात पूनम
सुबह शबनम
ऋतु बदली

धुन सुरीली
पर्वत श्रंखलाएं
जल प्रपात

नवल पात
डाल डाल भंवरे
आया बसंत

हरित लान
पुलकित पल्लव
भ्रमण पथ
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२०- ज्योत्सना शर्मा

उत्तर प्रदेश के जिला बिजनौर में जन्मी ज्योत्सना शर्मा ने वर्धमान कॉलेज बिजनौर से शिक्षा प्राप्त कर लगभग ११ वर्षों तक शिक्षण कार्य किया। अध्ययन, अध्यापन एवं  लेखन  में विशेष रूचि होने के कारण लेखन यात्रा जारी रही और रचनाएँ प्रकाशित होती रहीं। कुछ रचनाएँ स्थानीय पत्र -पत्रिकाओं में तो कुछ आकाशवाणी  से फिर इंटरनेट से जुड़कर वेब पर। संप्रति वापी गुजरात में निवास। नई पीढ़ी को हिन्दी और संस्कृत पढ़ने  की  रूचि बने इसके लिए प्रयास रत।

हाइकु
नीरव मन
सन्नाटा बुनती है
खामोश रात !!

मोतियों जड़ी
आह रोती है रात
आया ना चाँद !!

हटा रात का
तामसी आवरण
भोर आ गयी

लो आई भोर
झाँक रहा सूरज
पूर्व की ओर

जादुई पल
किरनों ने छू दिया
खिला कँवल

मौन व्रती सा
ये वृद्ध बरगद
ध्यानस्थ योगी

पत्ता जो गिरा
मुस्कुरा कर कहा
फिर आऊँगा
----------------------------------------------------------
२१- शरद तैलंग

कोटा के वरिष्ट सुगम संगीत गायक, ग़ज़लकार, व्यंग्यकार, रंगकर्मी एवं कार्यक्रम आयोजक शरद तैलंग के देश विदेश की अनेकों पत्र पत्रिकाओँ में गीत, ग़ज़ल, व्यग्य, लघुकथाएँ एवं बाल गीत प्रकाशित हो चुके हैं। आकाशवाणी, जयपुर, भोपाल तथा कोटा से उनकी रचनाओं का प्रसारण हुआ है। हिन्दी शोध संस्थान मुम्बई, उदभव ग्वालियर, कला अंकुर अजमेर, जिला प्रशासन कोटा, रोटरी क्लब, सेंट जोजफ स्कूल कोटा, आल इण्डिया आर्टिस्ट एसोशिएशन शिमला, कला भारती कोटा आदि द्वारा उन्हें सम्मानित किया जा चुका है। वे टीवी के प्रसिद्ध कार्यक्रम कौन बनेगा करोडपति मेँ प्रयुक्त चंद केबीसी छन्द के रचनाकार रहे हैं। साथ ही वे साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं के सदस्य भी हैं।
हाइकु

तुमने बिन्दी
माथे पर लगाई
सूरज उगा ।

दीपक अब
कितना भी गाइये
जलते नहीँ ।

दर्पण पर
चोँच मारे चिडिया
किसको कोसे ?

सूरज डूबा
सागर मे लेकिन
फिर उगेगा ।

सँत की वाणी
ये जग बसेरा है
दो दिन का ।

रात ने ओढी
काले रँग की शॉल
ठण्ड के मारे ।

भाग्य लिखा है
हस्त रेखाएँ कहीँ
मिट न जाएँ ।

कैक्टस पर
पत्थर मत मारो
शूल चुभेँगे ।

आज जुदा हैँ
पर कल मिलेँगे
वादा कर लेँ

बस्ते का बोझ
अभ्यास है बच्चोँ का,
जीवन हेतु

जब जलेगी
तब महकाएगी
अगरबत्ती

खाने की खोज,
जीने की परवाह,
बेचारे पशु

दिन बदले
साल भी बीत गये
आदत नही
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२२- कृष्ण कुमार तिवारी 'किशन'

१ जुलाई १९७० को ग्राम केशवपुर, जिला - इलाहाबाद, उ० प्र० में जन्मे कृष्ण कुमार तिवारी किशन वर्तमान में भारतीय पशु चिकित्सा अनुसन्धान संस्थान, ज्ज़तनगर, बरेली (उ० प्र०) में निजी सचिव के पद पर कार्यरत हैं। लिखने पढ़ने में उनकी रुचि है और विशेष रुप से वे कविताएँ लिखना पसंद करते हैं।

हाइकु

नभ का जल
धरती का अमृत
तृप्त जीवन

उफनाई सी
सरिता है आतुर
समा जाने को

भगवा तन
भागता हुआ मन
कैसा जीवन

ज्ञान समझ
अज्ञान ढोते हुए
जाते उलझ

जंगल कटा
अब कौन नाचेगा
मधुबन में

"मै" को जाने दो
बहुत दूर तक
खो जाने तक

पोपला मुंह
देह जैसे ठठरी
हमारी अम्मा

सरसों फूली
खुशबू गली गली
उड़ने लगी

दीवार उठी
घर आंगन बंटा
माँ कैसे बंटे

ज्ञान समझ
अज्ञान ढोते हुए
जाते उलझ

किसकी चिंता
मै, तुम, या उसकी
फिर किसकी

काल प्रवाह
प्रचंड सुनामी है
नहीं रुकेगा

जल की बूँद
पत्तो से छनकर
टप सी गिरी

कोयल कूकी
आम बौरा गया है
सुगंध फैली

नई उमंग
चेतना, आशा हर्ष
नूतन वर्ष

एक चुटकी
देहरी पर धूप
शरमायी सी

प्रजा से राजा
बदली परिभाषा
राजा से प्रजा

जनता द्वारा
जनता हित पर
बना शासन


खोकर पाना
सुखद, है दुखद
पाकर खोना

कुहासा बीच
झांकता सा सूरज
ऑंखें मींच

घना कुहासा
क्षीण धूप की आशा
हाड़ कंपाता

चंचल मन
तितली बन खोजे
शांति के वन

विश्वास ऐसा
हिमालय के जैसा
अविचल सा

मन दर्पण
भूलता जा रहा है
सच बोलना

ऊपर उठा
समस्याओं का ऊंट
पहाड़ नीचे

ख़ामोशी चुप
हौले हौले उतरी
रात आँगन

निशा सुन्दरी
स्निग्ध चांदनी संग
लगे परी सी

तोड़ो सन्नाटा
मौन मुखरित हो
मिटे असत्य
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२३- विक्की बाबू के हाइकु

‎कितना तड़पूँ
कब तक तरसूँ
कोई बताए

स्याह दामन
लकदक सितारे
निशा अबोली

खामोश हम
गुमसुम समां
बातें हज़ार

कहो ना कुछ
सब कुछ स्पष्ट
आँखों की राह

चुपचाप मैं
कब तक तड़पू
आ जाओ तुम

सुबह देखी ,
शबनम की बूँद ,
रात के आंसू
-------------------------
२४- सुमन दुबे के हाइकु

मन दर्पण
वक्त के सच झूठ
सोचे बुढापा

ये बालपन,
चन्दन सा मन
फैले सुगन्ध

तेरे प्यार को
बिन्दी सिन्दूर बना
रचा श्रंगार

वायु है डोले
सनन सन बोले,
छेड़े है राग

उड़ती तुम,
चिढाती बागंवा को,
आजाद मै हूं-

पेड़ो का वस्त्र,
जब तक हरा था,
सूखा धरा का।

मै पर्वत हूं,
द्रढता ले लो मेरी ,
गिरो, खड़े हो।

सुन्दर फूल,
इच्छा है मेरी चढूं,
वीरों की अर्थी ।

जाड़े की धूप
गरीबी का ओढना
मुनिया हँसी

काला सफेद
आरोप प्रत्यारोप
ए राजनीति
-------------------
२५- नूतन व्यास के हाइकु

दर्पण टूटा
मुझ से मन रूठा
क्या पहचान

विडम्बना ये
जग झूठा झंझट
राग द्वेश ये

सिंगार धर
सुनती बांसुरिया
राधिका प्यारी

चंदन टीका
सूरज सा दमका
जाग्रत धरा

सुमन नए
टूट के हाए गिरे
कुचले गए

माला पिरोई
प्रिय गठबंधन
ईश्वर संग

मन सुमन
विचार तितली से
सुन्दर क्षण

पुष्प सी खिली
तितली संग नाची
जन्मों की प्यासी

सुन्दर बेल
दीवार पर चढी
अजब खेल
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२६- रामकिशोर उपाध्याय

२७ अक्तूबर को जन्मे रामकिशोर उपाध्याय ने सनातकोत्तर अध्ययन के बाद भारतीय रेल में अपना कार्यजीवन प्रारंभ किया। वे संप्रति भारतीय रेल में उप वित्त सलाहकार एवं मुख्य लेखा अधिकारी)   के पद पर डी.रे.का. वाराणसी में कार्यरत हैं। उनकी रुचि हिंदी लेखन में है विशेषरूप से कविताओं में।

हाइकु

बैलगाड़ी
गाड़ी के पीछे पीछे
बैल का चलन

परिवर्तन
बरसात से पहले
बसंत आगमन

लोकसत्ता
लम्बी जेब में हफ्ता
लोभ रफ्ता रफ्ता

लोकतंत्र
लोक का पलायन
तंत्र नियंत्रण

ईश्वर सत्य
जगत मिथ्या का वचन
माया गबन

चाहे जितना
संवारो,यह नहीं
छिपाता धब्बे

देख इसको
करते है सच का
सामना,सभी

उतारता है
विद्रूपता,चाहे हो
चेहरे पे चेहरे

दिखाओ मत
दुसरो को, हो जब
स्वयं ही अंधे

तितली रानी
रचे बाग बहार
पुष्प प्रेमिका

नव यौवना
वृक्ष का अंग हार
प्रमिका देह

होती बरखा
पतझड़ के बाद
नया मौसम

शासन मौन
जनता पलायन
है सुशासन

आज का नेता
मिथ्या पहचान
माया गबन

है बदलाव
सर्दी की ठिठुरन
बर्फ का अलाव

नया जुगाड़
घोड़ा चलता पीछे
टमटम के

होती बरखा
पतझड़ के बाद
नया मौसम

आज की सत्ता
नेता बनता स्वार्थी
प्रजा बाराती

शासन मौन
जनता पलायन
है सुशासन

लोकसेवक
मिथ्या ही पहचान
माया गबन
-----------------------
२७- रूपचंद्र उपाध्याय "रूप " के हाइकु

पर्वतराज
संतरी वतन का
वो हिमालय

हवा पछुआ
गिर गए पेंड़ो से
पत्ते पुराने

नवागंतुक
बहार का राही हूँ
पुष्प सुमन

अठखेलिया
मकरंद रसीला
चटख रंग

दिन पहाड़
सन्न धूमिल रात
डरावनी सी

आँचल मैला
रंगीन ख्वाबों जैसा
पहाड़ी रास्ते

नाज़ुक मन
चूसती मकरंद
सरसों पीली

बर्फीला तन
सोंच में आकंठ
डूबता हुआ

लुट रहा जो
खुदमुख्तारी तंत्र
मालिक प्रजा

रहबर है
हांक रहा झुण्ड वो
नौकर राजा

मुर्ग-बन्दर
मदारी बराबर
प्रजातंत्र के

हमने जाना
मोहब्बत क्या है
पागलपन ?

तोड़ेगा व्रत
बादलो के अश्रु से
प्यासा पपीहा

मजदूर हूँ
मैं सुबह-शाम का
नाम सूर्य है

बेटिया मेरी
बढती गयी जैसे
सूद महाजन का

पीकर बिष
ही बनता है कोई
नीलकंठ सा

सर्द मौसम ?
या निकली धूप है
शरमा कर

समय -चक्र
का कुचक्र अर्थात
परिवर्तन

आगमन है
नयी कोंपलों का
प्यारा बसंत

पुराने पत्तों
पे चली आरियों सी
पछुआ हवा

कैलेण्डर का
बदलना अर्थात
नूतन वर्ष
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२८- मीरा ठाकुर

२३ जुलाई,१९६८ को जन्मी मीरा ठाकुर ने एम.ए. (हिंदी –स्वर्ण पदक) तथा एम. एड. उपाधि प्राप्त करने के बाद अध्यापन को व्यवसाय के रूप में चुना। बचपन से ही उनकी रुचि लेखन में रही तथा १९८२ से विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं। संप्रति डी. पी. एस. कालेज शारजाह में हिंदी शिक्षक के रूप  में कार्यरत हैं।

हाइकु

चुप रहना
अत्याचार बढ़ाना
मत करना

सन्नाटा छाया
बीती सुंदर बातें
याद कराएँ

खड़े पर्वत
आसमान को छूते
औ हम ऊँचें

पेड़ों के पत्ते
हमें सिखाते रहते
प्यार एकता

पत्ते औ फूल
लोग ना जाएँ भूल
आए बहार

तितली आई
रंगीन खुशियाँ हैं
मनभावन

लोकतंत्र में
जनता है बेबस
राजा बेकार

आम जनता
तकती है नेता को
छाई बेबसी

कुकुरमुत्ता
बना रूप बेकार
लोकनायक

छाई है मंदी
विचार और भाव
जनता कुंद

चिंतित मन
विचलित है ज्ञान
नेता महान

अँगूठा छाप
चलाते प्रजा राज
सभी बेहाल

नया संदेशा
लोकपाल बिल का
आशा है लाया

लोक तंत्र में
एक दृढ स्तम्भ
लेखनी हथियार

लोक तंत्र के
बदलते मायने
बल प्रयोग
-----------------
२९- मृत्युञ्जय पोखरियाल 'हिमांशु'

लोकतंत्र के
असहाय राजा से
प्रजा मायूस

प्रजा का शोर,
लोकतंत्र में राजा !
टूटा विश्वास

राज घराने,
लोकतंत्र में जिन्दा
आज तराने

राजा है चोर,
लोकतंत्री राज में,
बहुत शोर

ये मोहब्बत
मिल जाए तो मिट्टी
खोये तो सोना
---------------------
३०- ओमप्रकाश नौटियाल

जाडा जो आया,
मजदूर के घर
मातम छाया

सर्दी की रात
खुद ही काँप गई
घुस झुग्गी में

सर्दी थी कडी
अंगीठी की लकडी
जी भर लडी

सर्द थी रात
बिछौना फ़ुटपाथ
दीन अनाथ

मृत्यु वरण
ठंड से बचा तन
ओढा कफ़न

अंधेरगर्दी
झुग्गी ढूंढती सर्दी
कैसी बेदर्दी
------------------------------------------------------------
३१- संजीव निगम

कविता, कहानी, व्यंग्य, नाटक आदि विधाओं में सक्रिय रूप से  संलग्न संजीव निगम  पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी और दूरदर्शन से नियमित रूप से प्रकाशित प्रसारित होते रहे हैं। वे एक अत्यंत  प्रभावी वक्ता  और कुशल मंच संचालक भी हैं। टीवी धारावाहिकों तथा कॉर्पोरेट फिल्मों का लेखन के अतिरिक्त उन्होंने स्वाधीनता संग्राम और कांग्रेस के  इतिहास पर 'एक लक्ष्य एक अभियान' नाम से अभिनय-गीत-नाटकमय स्टेज शो का लेखन भी किया है जिसका मुंबई में कई बार मंचन हुआ। उनके गीतों का एक एल्बम प्रेम रस नाम से जारी हुआ है। एक राष्ट्रीयकृत बैंक के मुख्य प्रबंधक [मार्केटिंग, प्रचार व जनसंपर्क ] के  पद से स्वेच्छा से त्यागपत्र देकर अब वे सक्रिय रूप से स्वतंत्र लेखन एवं विज्ञापन जगत से जुड़ गए हैं।
हाइकु

राजा तो गया,
अपना राज आया,
लुटते क्यों?

कुछ न कहो,
चुपचाप ही सहो,
लोकतंत्र है

प्रजा सोचती,
गर होना था यही,
राजा क्या बुरा?
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३२- रजनी भार्गव

१५ फरवरी १९५९ को जन्मी रजनी भार्गव ने दिल्ली विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की है। उनकी रचनाएँ विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। 'प्रवासिनी के बोल' नामक अमरीकी रचनाकारों के काव्य संकलन में उनका विशेष योगदान रहा है। संप्रति वे अमेरिका के न्यू जर्सी राज्य में निवास करते हुए बाल शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं।

हाइकु

पुराना पता
क्रिस्मस पोस्टकार्ड
बर्फ़ीली हवा

पीली पत्तियाँ
शरद की तूलिका
ढलते रंग

पहली बर्फ़
घर का पिछवाड़ा
भीगा बस्ता

जूते के फ़ीते
जनवरी का पाला
आइसिकिल्स
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३३- सतपाल ख्याल

११ जनवरी १९७४ को पंजाब के होशियारपुर जिले के तलवाड़ा कसबे में जन्मे सतपाल ख्याल हिमाचल(बद्दी) मे एक बहुराष्ट्रीय संस्थान में इकाई प्रमुख के पद पर कायर्रत हैं और एक नेट पत्रिका "आज की ग़ज़ल" के संपादक व प्रकाशक हैं। उनकी गजलें पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर हर जगह पढ़ी जा सकती है। आकाशवाणी व दूरदर्शन से भी उनकी रचनाओं का प्रसारण हुआ है। पिछले एक साल से वे गजल की परिधि लांघकर अन्य विधाओं में भी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ लिख रहे हैं।
हाइकु

शांत है मन
गुरू को निहारता
पग पूजता

प्रेम ही तो है
सत्य और सुंदर
प्रभु के जैसा

चलो ए ! साथी
दूर, बहुत दूर
प्रेम नगरी

कोहरे में है
छुपा हुआ सूरज
सर्द पड़ा है

जीना ही तो है
हर हाल में हमें
जैसे हो सके

चलता चल
रस्ता ही तो है
कट जाएगा

कुछ तो सोचो
कैसे होगा जीवन ये
चंदन वन

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३४- परमेश्वर फुँकवाल

१६ अगस्त १९६७ नीमच, मध्य प्रदेश में जन्मे सिविल इंजीनियरिंग में स्नातकोत्तर उपाधि लेकर विगत २१ वर्षों से भारतीय रेल इंजीनियरिंग सेवा के जुड़े परमेश्वर फुंकवाल सम्प्रति रेल मंत्रालय, लखनऊ में कार्यकारी निदेशक हैं। उनकी रुचि साहित्य अनुसंधान और आध्यात्म के अतिरिक्त देश विदेश की यात्राओं में है।

हाइकु

हाइकु बांधे
अपरिमित भाव
छोटी सी डोर

हिंदी हाइकु
सत्यभूषण वर्मा
पितामह से

हाइकु बहे
निरंतरता लिए
अनुभूति की

इस सप्ताह
हाइकु ही हाइकु
लघु ही दीर्घ

सुबह से ही
धरा को गोद लिए
बैठा है नभ

बिखरे मोती
आया नहीं सूरज
दूब उदास

हँसते बच्चे
हरसिंगार झरे
धरा की गोद

सबसे छुपी
राहें दुबक गयीं
धुंधली ओट

उतना मांगो
जीवन को जितना
दे सको तुम

सूर्य किरण
नव वधु की डोली
देहरी पर
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३५- जितेन्द्र जौहर
२० जुलाई, १९७१  को, कन्नौज, उ.प्र., भारत में जन्मे जितेन्द्र जौहर ने एम. ए. (अंग्रेज़ी: भाषा एवं साहित्य), बी. एड., सी.सी.ए. की उपाधियाँ परास्नातक स्तर पर सर्वोच्च अंक प्राप्त करते हुए प्राप्त कीं। उन्होंने अध्यापन को व्यवसाय के रूप में अपनाया और ए. बी. आई. कॉलेज, रेणुसागर, सोनभद्र, उप्र में नियुक्ति ली। इसके साथ ही उनका लेखन जारी रहा। गीत, ग़ज़ल, दोहा, मुक्तछंद, हाइकू, मुक्तक, हास्य-व्यंग्य, लघुकथा समीक्षा, भूमिका, आलेख, आदि उनकी प्रिय विधाएँ वे जौहरवाणी नाम का एक चिट्ठा प्रकाशित करते हैं। उन्हें अ.भा.वै.महासभाद्वारा ‘रजत-प्रतिमा’ से सम्मानित किया जा चुका है।

हाइकु

जिसने किया
वासनाओं का अन्त
वही है संत !

दीप का कर्म
उम्रभर निभाना
सूर्य का धर्म !

सूरज जागा
दुम दबाके भागा
तम अभागा !

‘तम’ के मारे
अनगिनत चाँटे
दीप-शिखा ने।

दीप ने लिखे
प्रकाश के आलेख
पढ़के देख !

दीप की सत्ता
‘प्रसव’ हो या ‘शव’
सार्वकालिक।

दीप की काया
यानी माटी की माया
ज्योति चेतना।
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३६- कमलेश कांडपाल

ऊँचे भवन
गायब वन-उपवन!
महानगर है ये!

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३७- कृष्ण पांडेय

जाड़े की रात
प्रेमचंद अलगू
है साथ साथ
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३८- स्वाती भालोटिया
स्वाती भालोटिया का जन्म कलकत्ता में हुआ और कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिन्दी में बी. ए. और फिर बी.एड. किया । हिन्दी में अपनी कोशिशों और सर्वाधिक अंकों के कारण हर वर्ष पुरस्कार मिलते रहे। माँ से हिन्दी-रचना की प्रेरणा पाकर १८ वर्ष की उम्र से लिखना शुरु किया। वे पिछले तीन वर्षों से हाइकु लिख रही हैं और हाइकु क्षेत्र में जाना माना नाम हैं। संप्रति वे दुबई से होते हुए लंदन में व्यवस्थित हुई हैं और परिवार की देखभाल से समय निकालकर कुछ न कुछ लिखती रही हैं।

हाइकु

जीवन-क्रम
पानी की कहानी है
सूखा सुनामी

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३९- राजेन्द्र कंडपाल

रंगीन फूल
हँसती युवतियाँ
भौरे यहाँ भी
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४०- जीतेन्द्र पारीक मुसाफिर अकेला

आशा के दीप,
खुशियाँ बुलाएँ,
मन खिलाएँ।